दागियों के साथ केंद्र…ताउम्र प्रतिबंध पर अदालत में दी ऐसी सफाई कि लोग पूछने लगे सवाल 

नई दिल्ली.ऑनलाइन टीम : जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाला लोकपाल विधेयक 50 साल से संसद में अटका हुआ है। पिछले कुछ वर्षो में हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में अपने निजी स्वार्थ साधने वाले स्वयंसेवी, अपराधी तथा भ्रष्ट लोगों की घुसपैठ ज्यादा हो गई है, जिससे लोगों की कीमत पर चोर-बेईमानों और अपराधियों को फलने-फूलने में मदद मिली है। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि लोकतंत्र का सबसे बड़ा महायज्ञ एक कारोबार बन गया है। बेहिसाब पैसा झोंका जा रहा है, राजनीति में पतित और भ्रष्ट लोगों के दबदबे के कारण नौकरशाही भी बेलगाम और भ्रष्ट होती जा रही है।

केंद्र की मोदी सरकार पर इसकी सफाई की भी उम्मीदें टिकी हुई हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि मौजूदा केंद्र सरकार भी नहीं चाहती कि दोषी ठहराए गए नेताओं के उम्रभर चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगे। उसका यह चेहरा तब सामने आया, जब सुप्रीम कोर्ट में इसे लेकर दायर संशोधित जनहित याचिका का केंद्र सरकार ने पिछले दिनों विरोध किया। केंद्र का तर्क है कि निर्वाचित प्रतिनिधि कानून से समान रूप से बंधे हैं।

दरअसल,  भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने संशोधित जनहित याचिका लगाई थी। वह जन प्रतिनिधित्व कानून के अंतर्गत दो साल या इससे अधिक की सजा पाने वाले नेताओं सहित सभी दोषी व्यक्तियों के जेल से रिहा होने के बाद छह साल तक चुनाव लड़ने के अयोग्य होने की बजाय उम्र भर के लिये प्रतिबंध चाहते हैं, लेकिन कानून मंत्रालय ने न्यायालय में दायर हलफनामे में कहा है कि जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 के प्रावधानों को चुनौती देने के लिये जनहित याचिका में संशोधन के आवेदन में कोई गुण नहीं है। दागी नेताओं पर अपने इस स्टैंड के बाद नरेंद्र मोदी सरकार को सोशल मीडिया पर आलोचना झेलनी पड़ रही है। कुछ साल पहले चुनाव आयोग ने ताउम्र बैन की वकालत की थी।

ऐसे लगात है कि फैसला जनता को ही करना होगा, क्योंकि गलत जनप्रतिनिधि करोड़ों लोगों का अहित कर सकता है, क्योंकि यदि एक अपराधी या भ्रष्टाचारी को खुद कानून का निर्माता बना दिया जाता है तो वह कभी ऐसे कानूनों का समर्थन नहीं करेगा जो खुद उसके ऊपर अंकुश लगाता है। ऐसी स्थिति में जनता के हित के कानून पारित नहीं हो पाते हैं।