होली विशेष: कहां गई वो पहले वाली होली

नीरज नैयर

मुझसे अगर कोई पूछे कि सबसे अच्छा त्यौहार कौनसा सा है तो मैं कहूंगा होली। इस त्यौहार की सबसे अच्छी बात ये है कि इसमें अमीर-गरीब का कोई भेद नजर नहीं आता। गरीब भी रंग में रंगा होता है और अमीर भी, न अमीर का रंग ज्यादा चमक मारता है और न गरीब को इसे खरीदने के लिए किसी का मुंह ताकना पड़ता है। निसंदेह दिपावली की जगमग हर त्यौहार पर भारी पड़ती है, मगर वो जगमग कहीं न कहीं अमीर-गरीब के बीच की खाई को भी उजागर करती है। गरीब के बच्चे दूसरों की आतिशबाजी को निहार-निहारकर मन ही मन में अपनी गरीबी पर अफसोस जताते हैं। आतिशबाजी की दुकानों के आसपास खरीदारी करते लोगों को कौतूहल भरी निगाहों से देखना और दूसरी सुबह इस उम्मीद में कि कोई बम जलने से रह गया होगा सड़कों की खाक छानना गरीब बच्चों की दिवाली का हिस्सा है। इसलिए मुझे होली ज्यादा पसंद आती है। खासकर बचपन के दिनों में, वो महीनों पहले से तैयारी में मशगूल हो जाना, हर आने-जाने वाले पर रंगों के गुब्बारे फेंकना मैं कभी नहीं भूल सकता। हमारी होली होली आने से पहले ही शुरू हो जाया करती थी, दोस्त-यार बैठकर बाकायदा योजना बनाया करते थे कि इस बार क्या खास करना है। गुलाल हमें बड़े-बुजुर्गों के खेलने की चीज लगता था इसलिए हमारे हाथ होली के कई दिनों बाद तक रंग-बिरंगे दिखाई देते थे। वैसे भी होली का क्या मतलब अगर एक ही दिन में रंग निकल जाए। होली पर बच्चों के लिए सबसे अच्छा अगर कुछ होता है तो वो हैं गुब्बारे। रंग भरों, निशाना लगाओ और छुप जाओ।

एक गुब्बारे के लिए आसमान सिर पर 

गुब्बारे से मुझे एक किस्सा याद आ रहा है, बात शायद होली से दो-तीन दिन पहले की रही होगी। हम सब दोस्त हथगोलों (गुब्बारे) को लेकर अपनी-अपनी पोजीशन (छतों) पर तैनात थे। हर आने-जाने वाला हमारे टारगेट पर होता। कुछ लोग हंस के निकल जाते तो कुछ होली के उल्लास में दो-चार गालियों के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा जाते। यूं ही निशाना लगाते-लगाते एक गुब्बारा घर के नीचे से गुजरते मुल्ला जी के लग गया। हमारे लिए गनीमत ये रही कि वो गुब्बारा रंग का नहीं बल्कि पानी का था। बावजूद इसके मुल्ला जी ने अपनी साइकिल स्टैंड पर टिकाकर आसमान सर पे उठा लिया। तकरीबन 30 मिनट तक वो उस एक गुब्बारे का बदला हमसे लेते रहे। बाद में लोगों के समझाने-बुझाने के बाद किसी तरह जब उन्होंने अपनी साइकिल स्टैंड से उतारी तब जाकर जान में जान आई।

बचपन की नादानियाँ 

कुछ देर तक हम लोग खामोश रहे मगर खामोशी ज्यादा देर तक टिक नहीं सकी, फिर वही निशाने लगाने का खेल शुरू हो गया। ऐन होली वाले दिन गुब्बारे भरने के लिए हम अलसुबल उठ जाते थे, दो बाल्टी भर के गुब्बारे तो मेरे अकेले के ही होते। उस वक्त जल्दी उठने की वजह होली के उत्साह के साथ-साथ मजबूरी भी थी। मजबूरी इसलिए क्योंकि आठ-नौ बजे तक नल सो जाया करते थे। वैसे ये केवल उस दौर की समस्या नहीं थी, आज भी है। अक्सर होली पर वॉटर सप्लाई बाधित हो जाती है, जिसकी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। इसी तरह दिपावली पर बिजली की आंख मिचोली होती रहती है। लेकिन ख़ास समुदाय से जुड़े हर त्यौहार पर ये दोनों ही विभाग दरियादिल बन जाते हैं, फिर भी भेदभाव का रोना रोया जाता है। खैर ये एक अलग मुद्दा है। एक-दो बजे के आसपास जब लोग रंग छुड़ाने के लिए घरो में कैद हो जाया करते तो हम बचे हुए गुब्बारों का इस्तेमाल उन घर की दीवारों को रंगीन करने में करते जिन्हें हमारे क्रिकेट प्रेम से सबसे ज्यादा चिढ़ थी। बचपन में क्रिकेट खेलने के लिए क्या कुछ नहीं सुनना पढ़ता इस पीड़ा को ज़्यादातर भारतीय समझते होंगे। कभी-कभी जब पकड़े जाते तो इसके लिए हमारे गालों पर थप्पड़ भी रसीद हो जाया करते।

नहीं रहे वो दिन 

आज के दौर में होली पूरी तरह से बदल गई है। अब न तो उल्लास का वो मदमस्त करने वाला शोर सुनाई देता है और न लोग घर से बाहर आने में दिलचस्पी दिखाते हैं। इस बार भी होली बस दरवाजे पर खड़ी है, लेकिन वो पहले वाला शोर सुनाई नहीं दे रहा है. तेजी से भागती दुनिया में जहां 50-50 से ज्यादा 20-20 ओवर का मैच पसंद किया जाता है वहां होली भी बहुत शॉर्ट होकर रह गई है। ये बदलाव सिर्फ शहर तक ही सीमित नहीं है, गांवों में भी ऐसा ही हाल है। गांवों में होली की शुरूआत सवा महीने पहले बसंत पंचमी के दिन से हो जाया करती थी। इस दिन गांव के लोग होलिका दहन वाले स्थान पर एक डंडा गाड़ दिया करते। फिर पूजा के बाद यहां लकड़ियां इकट्ठी की जातीं और धमाल शुरू हो जाता। गांव के हुरियारे चौपाल पर मिलजुलकर होली के गीत गाते। पर अब गांवों में होली वाले दिन तक शहर जैसी खामोशी छाई रहती है।

रंग नहीं बदलते रूप ज़िम्मेदार

दरअसल, इस बदलाव के पीछे लोगों का बदलता रूप भी जिम्मेदार है। होली का पवित्र त्यौहार अब दुश्मनी निकालने के काम आता है। मनचलों के लिए तो ये दिन पूरी आजादी का दिन बन गया है। रंगे-पुते चेहरों के बीच कौन क्या करके निकल जाए पता ही नहीं चल सकता। और तो और कपड़े फाड़ने का ट्रेंड भी चल गया है, जब तक एक-दूसरे के कपड़े नहीं फाड़े जाते तबतक लोगों को लगता ही नहीं कि उन्होंने होली खेली है। मथुरा-वृंदावन जहां की होली भारत ही नहीं दुनिया भर में मशहूर है, वहां भी होली के हुड़दंग में क्या कुछ नहीं किया जाता।

रंग बिना क्या जीवन?

जिस रफ्तार से होली खेलने वालों की तादाद और उसके प्रति लोगों का उत्साह घट रहा है उससे आने वाले कुछ सालों में होली महज नाम की होली बनकर रह जाएगी। एक ऐसा त्यौहार जो कुछ देर के लिए ही सही मगर सारे भेदभाव मिटाकर सबको एक जैसा बना देता है, होली के अलावा कोई दूसरा नहीं हो सकता। होली रंगों का त्यौहार है और रंगों के बगैर हम अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते तो फिर कैसे हम होली को दम तोड़ने दे रहे हैं?