शिकागो यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्री सैम पेल्ट्जमैन पर इसका नाम रखा गया है, जिन्होंने सन 1975 में पहली बार इसका वर्णन किया था। उनके इस सिद्धांत के अनुसार, सुरक्षा उपायों के आ जाने से लोगों में जोखिम लेने के बारे में अवधारणा बदल जाती है, वे ज्यादा से ज्यादा जोखिम लेना शुरू कर देते हैं।
सिद्धांत के मुताबिक, पेल्ट्जमैन ने ऑटोमोबाइल्स का उदाहरण देते हुए बताया कि सीटबेल्ट के इस्तेमाल को अनिवार्य कर देने के बाद से दुर्घटनाओं में अधिक वृद्धि देखी जाती है। इससे स्पष्ट है कि सुरक्षा उपायों से लोगों में जोखिम लेने की भूख बढ़ जाती है। लोगों को जब अधिक खतरे का एहसास होता है, तो वे अधिक सुरक्षित रहते हैं और जब वे खुद को अधिक सुरक्षित महसूस करते हैं, तो जोखिम भी ज्यादा लेते हैं।
कोरोना के संदर्भ में बात करें, तो वैक्सीन लेने से हमारे अंदर सुरक्षा की भावना पैदा होने लगती है और इसका सीधा असर हमारे व्यवहार पर पड़ता है। लोग निवारक उपायों का कमतर पालन करने लगते हैं जैसे कि मास्क का उतना उपयोग नहीं करना, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं करना, स्वच्छता का पर्याप्त ख्याल नहीं रखना इत्यादि।
जबकि यह साफ है कि वैक्सीन हमें पूरी तरह से बचाने या सुरक्षा प्रदान करने के लिए काफी नहीं है। हालांकि इस बार लोगों में सुरक्षा की यह भावना काफी पहले आ गई है। लोग वैक्सीन सेंटर पहुंचने के बाद से ही निवारक उपायों का पालन करना जरूरी नहीं समझते हैं।
न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय से संबद्ध लैंगोन हेल्थ के चिकित्सकों ने पेल्ट्जमैन इफेक्ट की व्यापक समीक्षा की, जिसे 2 मार्च को एसीपी जर्नल में प्रकाशित किया गया। इसके मुताबिक, टीका लगाए जाने वाले लोगों में सुरक्षा को लेकर एक गलत भावना पैदा हो रही है। उनमें आत्मविश्वास की भावना जरूरत से ज्यादा बढ़ रही है। ऐसे में निवारक उपायों में वे ढील दे रहे हैं।
–आईएएनएस
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