गुजरात में डेयरी मॉडल बना बच्चों में कुपोषण मिटाने का औजार

अहमदाबाद, 16 अक्टूबर (आईएएनएस)| एशिया के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक जिले बनासकांठा में जब बच्चों को कुपोषण से बचाने के सारे तरीके नाकाम रहे तो एक डेयरी मॉडल ने असंभव मालूम पड़ने वाले काम को संभव कर दिखाया है। यूनिसेफ इंडिया के अनुसार, उनके एक पायलट प्रोजेक्ट ने इस लक्ष्य को हासिल करने के संकेत दिए हैं, जिसे कई तकनीकों, योजनाएं लाने और धन खर्च करने के बाद भी नहीं हासिल किया सजा सका था।

अधिकतम घरों तक पहुंचने और आम जनता को ‘रूढ़िवादी’ प्रथाओं को छोड़ने के लिए समझाने और उनमें जागरूकता पैदा करने के लिए यूनिसेफ ने एक संगठन के साथ मिलकर काम करने का फैसला किया, जिसका कि बनास डेयरी के साथ बहुत मजबूत संबंध था।

चार लाख से अधिक सदस्यों के साथ, बनास डेयरी एशिया का सबसे बड़ा दुग्ध संघ है। बनासकांठा जिले में और यहां तक कि आसपास के क्षेत्रों में भी डेयरी की बहुत मजबूत पकड़ है, जिसने यूनीसेफ को बनास डेयरी से हाथ मिलाने के लिए प्रेरित किया।

यूनीसेफ गुजरात की प्रमुख लक्ष्मी भवानी ने अधिकांश बच्चों में कुपोषण के कारण का जिक्र करते हुए आईएएनएस को बताया, “हमने देखा कि यहां के डेयरी किसान दुनिया में सबसे अच्छे मवेशी पालकों में से एक हैं। वे अपने मवेशियों के लिए स्तनपान, टीकाकरण और सभी आवश्यक बातें सुनिश्चित करते हैं। जबकि वे अपने बच्चों का लालन-पालन इतने अच्छे ढंग से नहीं करते हैं।”

लक्षमी ने कहा कि बनास डेयरी के कई फील्ड कर्मचारी जो पहले से ही किसानों के परिवारों के साथ मिलकर उन्हें कृषि पद्धतियों के बारे में शिक्षित करने के लिए काम कर रहे थे, उन्होंने डेयरी किसानों को उनके द्वारा जिस तरह से मवेशियों की देखभाल की जाती है, उसका उदाहरण देकर उन्हें कुपोषण के बारे में, किशोर उम्र, गर्भावस्था और बच्चे के जन्म के बाद के दौरान देखभाल के संबंध में जागरूक कर यूनीसेफ की मदद की।

उन्होंने कहा, “पोषण वंदना कार्यक्रम के तहत, हमने 421 फील्ड स्टाफ को बच्चों, मां और किशोरों के लिए पोषण के महत्व के बारे में प्रशिक्षित किया है। प्रत्येक फील्ड स्टाफ ग्राम डेयरी सहकारी समिति स्तर पर बैठक करता है, उनके घरों में पशुओं की देखभाल करने के उदाहरणों का उल्लेख करते हुए किशोरावस्था की आयु, गर्भावस्था और बच्चे के जन्म के बाद किए जाने वाले देखभाल और पोषण के बारे में वीडियो दिखाता है।”

फील्ड स्टाफ सदस्यों में एक हैं बाबी बेन, जो इस पायलट इनीशिएटिव की परियोजना समन्वयक भी हैं। उन्होंने आईएएनएस को बताया कि क्षेत्र के अधिकांश घरों में लोगों ने अपने बच्चों को रूढ़िवादी तरीकों से पाला है, क्योंकि कुछ लोगों का मानना है कि एक नए जन्मे शिशु को बकरी का दूध दिया जाना चाहिए। जबकि कुछ अपने दैनिक आहार में टीएचआर (टेक होम राशन) को शामिल करने के लिए राजी नहीं थे, जो क्षेत्र में एक बड़ा मुद्दा था और इसे एक विचार की आवश्यकता थी, जो लोगों की मानसिकता को बदल सके और उन्हें बच्चों की परवरिश करने के लिए पहले से ही उपलब्ध योजनाओं और तकनीक का उपयोग करने के लिए प्रेरित कर सके।”

बेन ने कहा, “क्षेत्र के कई घर टीएचआर का उपयोग करने से अनिच्छुक थे, उन्हें लगा कि पैक की गई वस्तु उनके बच्चों के लिए अच्छी नहीं है, जबकि इसके विपरीत यह एक बच्चे को पोषण प्रदान करने का सबसे अच्छा तरीका था। क्षेत्र के कई घरों ने भी नवजात शिशु को शुरुआती दिनों में स्तनपान कराने का विरोध किया था। वे मानते थे कि बकरी का दूध बेहतर था, यह एक मुद्दा बन गया था।”

हालांकि, अब इस पायलट प्रोजेक्ट के लगभग आठ महीने पूरे हो जाने के बाद, आंगनवाड़ी में वजन रजिस्टर में कम लाल निशान दिखाई देने लगे हैं, क्योंकि सैकड़ों बच्चों के वजन में वृद्धि देखी गई है और वे अब स्वस्थ हैं। हालांकि आंकड़े कुछ समय बाद ही उपलब्ध होंगे। लेकिन बनासकांठा में यूनीसेफ, बनास डेयरी के ग्राउंड स्टाफ और यहां तक कि आंगनवाड़ी कर्मियों का मानना है कि परिवारों ने पहले से ही उपलब्ध सरकारी योजनाओं का उपयोग करना शुरू कर दिया है, जो बच्चों को कुपोषण से बाहर ला रहे हैं।

लक्षमी ने कहा कि सरकार पोषण अभियान के तहत जन आन्दोलन की आवश्यकता पर भी जोर दे रही है। उन्हें विश्वास है कि इस तरह बड़े पैमाने पर लोगों के जुटने से राज्य में वर्तमान पोषण स्थिति में सुधार होगा।