किसानों की पीड़ा क्यों नहीं समझ सके फडणवीस?

मुंबई – अपनी मांगों को लेकर करीब 30 हजार किसान मुंबई के आज़ाद मैदान में रहे। इतनी बड़ी संख्या में किसानों के पहुंचने से राज्य सरकार के माथे पर शिकन पड़ गया। आनन-फानन में 6 मंत्रियों की कमिटी का गठन किया गया, मुख्यमंत्री स्वयं मामले पर नज़रें गड़ाये रहे। गनीमत इतनी थी कि किसानों ने शांति बनाए रखी, यदि इसमें उग्रता का भाव प्रकट हो जाता तो सरकार के लिए स्थिति और भी ज्यादा गंभीर हो जाती। शाम ढलने से पहले सरकार ने किसानों को मना लिया और उनसे 6 महीने की मोहलत मांग ली। हर आंदोलन के वक़्त लगभग ऐसा ही किया जाता है। अक्सर सरकारें फौरी हल निकालती हैं और यदि समस्या चुनाव के नज़दीक सामने आए तो फिर उसके समाधान की रूपरेखा इस तरह तैयार की जाती है कि अगली सरकार बनने तक स्थिति जस की तस रहे। ख़ैर ये एक अलग मसला है, यहाँ सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर सरकार किसानों की चिंता को पहले क्यों भाप नहीं सकी? नासिक के चलकर जब किसान मुंबई पहुंच गए, तब उसे समझ आया कि हालात बिगड़ सकते हैं। इतनी बड़ी संख्या में किसानों के आंदोलन की रणनीति एक दिन में तो तैयार हुई नहीं होगी, महीनों पहले से इस पर विचार-विमर्श चल रहा होगा। तो क्या सरकार को किसानों के सड़कों उतरने से पहले उनसे बातचीत नहीं करनी चाहिए थी? जितनी उत्सुकता वो अब दिखा रही है, यदि इसका 50 फीसदी भी पहले दिखाया होता तो न किसानों के पांवों में छाले पड़ते और न आम लोगों को यूँ परेशान होना पड़ता। जिस तरह से राज्य सरकार ने इस मामले पर प्रतिक्रिया दी है, उससे यह समझ आता है कि या तो उसका ख़ुफ़िया तंत्र इतना कमज़ोर हो गया है कि उसे 30 हजार किसानों के एकसाथ कूच करने की भनक नहीं लगी, या फिर वो जानबूझकर इसे कम तवज्जो देती रही।

वो तीन माँगें

इन किसानों की मूल रूप से तीन माँगें हैं। वन अधिकार कानून, 2006 को सही ढंग से लागू करना, कर्ज माफ़ी के सरकारी वादे को पूरा करना और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करना। वन अधिकारी कानून को पूर्णता अमल में लाने की मांग पर सरकार यदि चाहती तो काफी पहले ही अमल किया जा सकता था। गढ़चिरौली में यह कानून बेहतर ढंग से लागू है, यानी नासिक में ऐसा किए जाने की संभावना है। बावजूद इसके सरकार ने विकल्प तलाशना ज़रूरी नहीं समझा। इस कानून का मतलब है कि किसानों को जंगल में पैदा होने वाले उत्पादों के सहारे जीविका कमाने का अधिकार। कई किसानों का कहना है कि वन अधिकारी जब चाहे उनके खेतों को खोद डालते हैं, लिहाजा अब उन्हें अपनी जमीन पर अपना अधिकार चाहिए।

पारदर्शिता की कमी

जहां तक बात किसानों की क़र्ज़ माफ़ी की है, तो इस विषय में सरकार की भी कुछ मजबूरियां हैं। मसलन, प्रदर्शन करने वाले किसानों में ऐसी किसानों की संख्या काफी ज्यादा है, जिन्होंने स्थानीय साहूकारों से क़र्ज़ लिया है। ऐसे में सरकार ने क़र्ज़ माफ़ी की जो घोषणा की उससे इन किसानों को फायदा नहीं मिला। हालांकि इतना ज़रूर है कि सरकार की तरफ से पारदर्शिता पर जोर नहीं दिया गया। किसानों की तीसरी मांग के मामले में सरकारी रवैया कुछ ठीक नहीं रहा। प्रोफ़ेसर स्वामीनाथन की अध्यक्षता में नवंबर 2004 को ‘नेशनल कमीशन ऑन फारमर्स’ का गठन किया गया था। इसके दो सालों में कमेटी ने छह रिपोर्ट तैयार की। लेकिन सरकारों ने इस दिशा में गंभीरता नहीं दिखाई। यदि वजह है कि इस मांग को लेकर केवल महाराष्ट्र ही नहीं मध्य प्रदेश में प्रदर्शन होते रहे हैं।

वोट बैंक की राजनीति

इस बात में कोई दोराय नहीं कि सभी मांगों को स्वीकार करना सरकार के बस में नहीं, लेकिन सरकार स्पष्टवादी रवैया तो अपना ही सकती है। चुनावी नफे-नुकसान और वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठते हुए यदि सरकार यह स्पष्ट करे कि उसके लिए किस मांग को मानना संभव है और किसे नहीं तो आस से उपजने वाले इन टकरावों को टाला जा सकता है। फडणवीस सरकार ने इस मामले की गंभीरता को तब समझा, जब किसान दरवाजे पर आकर दस्तक देने लगे। इसे एक तरह से सरकार की असफलता ही कहा जाएगा।